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"साथी रे, भूल न जाना मेरा प्यार" Old-is-Gold -Ravindra Jain Part 1 - संगीत.कॉम

'ओल्ड इज़ गोल्ड' के दोस्तों, इन दिनों आप आनन्द ले रहे हैं सुरीले संगीतकार व अर्थपूर्ण गीतों के गीतकार रवीन्द्र जैन पर केन्द्रित Sangeet.com का। आज पाँचवीं कड़ी में हम आपको बताने जा रहे हैं रवीन्द्र जैन का हिन्दी फ़िल्म जगत में आगमन कैसे हुआ।

40 के दशक के अन्त और 50 के दशक के शुरुआती सालों में अलीगढ़ में रहते हुए ही रवीन्द्र जैन के अन्दर संगीत का बीजारोपण हो चुका था।

वो गोष्ठियों में जाया करते, मुशायरों में जाया करते। उनमें शायर इक़बाल उनके अच्छे दोस्त थे।

रविन्द्र जैन का एक और दोस्त था निसार जो रफ़ी, मुकेश और तमाम गायकों के गीत उन्हीं के अंदाज़ में गाता था । इस तरह से वो शामें बड़ी हसीन हुआ करती थीं। कभी बाग में, कभी रेस्तोरां में, देर रात तक महफ़िलें चला करतीं और रवीन्द्र जैन उनमें हारमोनियम बजाया करते गीतों के साथ।

अन्ताक्षरी में जब कोई अटक जाता तो वो तुरन्त गीत बता दिया करते ये दिन उनकी ज़िन्दगी के ख़ूबसूरत दिन थे




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और उसके बाद 60 के दशक में रवीन्द्र जैन कलकत्ता आ गए।

वहाँ पर नामचीन फ़िल्मकार हृतिक घटक से उनकी मुलाकात हुई जिन्होंने उन्हें सुन कर यह कहा था कि वे बड़ा तरक्की करेंगे।

कलकत्ते से बम्बई किस वजह से आना हुआ यह जानिए दादु के ही शब्दों में - "घूमते फिरते आए। शंकर था मेरे साथ, मेरा छोटा भाई, राधेश्याम जी और शंकर, हम लोग वहाँ से बाइ रोड आए यहाँ पे, तमाम जगहों से गुज़रते हुए, जैसे पंचमरही, फिर रायपुर; रायपुर में जहाँ मेरी मुलाक़ात हुई डॉ. सेन से, अरुण कुमार जी, जिनके बेटे शेखर कल्याण आजकल अच्छा काम कर रहे हैं। और कलकत्ते में जैसा मैंने आपको बताया कि संगीत की बहुमुखी प्रतिभाओं से मेरा साक्षात हुआ है।

वहाँ पे क्लासिकल का भी लोगों में उतना ही लगाव है और सुनने का, रात-रात भर कॉनफ़रेन्सेस होती थी, हम लोग सुना करते थे, हमारे वो मित्र राधेश्याम जी के भतीजे, महेन्द्र जी, रघुनाथ जी, हम सब जाया करते थे, टिकट लेके कॉनफ़रेन्सेस सुना करते थे, लेकिन वो बड़ा काम आया, क्योंकि देश के जो शीर्ष के जितने कलाकार हैं न, सब वहाँ होते थे।"

आज हम रविंद्र जैन के लिखे और संगीतबद्ध किए जिस गीत को सुनवाने के लिए लाये हैं, वह है आशा भोसले का गाया फ़िल्म 'कोतवाल साहब' का गीत "साथी रे, भूल न जाना मेरा प्यार"।

१९७७ में बनी इस फ़िल्म में मुख्य कलाकार थे शत्रुघ्न सिन्हा और अपर्णा सेन। पवन कुमार निर्मित इस फ़िल्म को ऋषी दा नें, यानी ऋषीकेश मुखर्जी नें निर्देशित किया था। प्रस्तुत गीत बड़ा ही सुन्दर गीत है, जितने सुन्दर बोल दादु नें लिखे हैं, उतना ही सुरीला संगीत है इस गीत का, और आशा जी नें भी उतनी ही ख़ूबसूरती से इसे निभाया है।

फ़िल्मांकन में इस गीत का पार्श्वगीत के रूप में इस्तमाल किया गया है। पता नहीं क्यों, पर इस गीत को सुनते हुए एक हौन्टिंग् सी फ़ील होती है।

गीत का मूड तो ज़रा सा संजीदा है, पर यहाँ पर हम रवीन्द्र जैन जी से जुड़ा एक मज़ेदार किस्सा आपके साथ बाँटना चाहते हैं जिसे जैन साहब नें ही उस साक्षात्कार में बताया था - "एक बार मैं और मेरा एक दोस्त, एक दिन हमें बाहर खाने का बड़ा शौक हुआ तो हम लोग कटपुरा एक जगह है, वहाँ जाने के लिए, हमने एक टिन ली और गाने बजाने लगे और लोगों से पैसे इकट्ठा किए और जब मेरे पिताजी को यह बात पता चली तो बड़े नाराज़ हुए और बोले कि जाओ, जिन जिन से पैसे लिए थे, उनको लौटा के आओ। लेकिन यह कैसे हो सकता है, किससे कितने लिए यह मैं कैसे याद रखता! फिर मैंने सोचा कि इससे अच्छा है मन्दिर में जाके डाल देता हूँ। थोड़े से पैसों से हमने खा लिया जो हमको खाना था,

आपको बताएं ऐसी कई बड़ी मज़ेदार घटनाएँ हैं। बहुत बार प्रोग्राम में बुला लिया लोगों ने, और वहाँ से लौट रहे हैं बाजा हाथ में उठाए, ना रिक्शा के पैसे दिए ना...."। तो दोस्तों, रवीन्द्र जी के इन मज़ेदार यादों के बाद आइए अब ज़रा सा मूड को बदलते हुए सुनें आशा जी की आवाज़ में "साथी रे, भूल न जाना मेरा प्यार"





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