अकेला चल चला चल...मंजिल की पुकार सुनाता ये गीत
रवीन्द्र जैन के बड़े भाई डी. के. जैन का, जिनका रवीन्द्र जैन के जीवन में बड़ा महत्व है, आइए आज वहीं से बात को आगे बढ़ाते हैं।
"भाईसाहब साहित्य कर रहे थे उन दिनों, उन्होंने डी.लिट किया, जैन ऑथर्स ऑफ़ फ़्रेन्च पे काम कर रहे थे, तो किताबें रहती थी उनके रूम में ढेर सारी, तो मैं वहीं बैठा रहता था उनके पास, उनको कहता था कि थोड़ा ज़ोर-ज़ोर से पढ़ें ताकि मैं अपने अन्दर समेट सकूँ उन रचनाओं को, उस साहित्य को सहेज के रख सकूँ। आप जो भी आज सुनते हैं वो सारा वहीं से अनुप्रेरीत है। और अलीगढ़ में मेरे ज़्यादातर दोस्त मुस्लिम रहे, मेरे घर के पास ही मोहल्ला है, उपर कोर्ट, दिन वहीं गुज़रता था, मेरे बचपन की एक बान्धवी मेरे लिए ग़ज़लें इकट्ठा करती थीं, गुल्दस्ता, एक मैगज़िन आती थी 'शमा', उर्दू साहित्य की बहुत पॉपुलर मैगज़िन थी, उसमें से ग़ज़लें छाँट-छाँट के सुनाया करती थी मुझे। ख़ूबसूरत दिन थे
मैंने एक शेर कहा कि
"आज कितने भी हसीन रंग में गुज़रे लेकिन कल जो गुज़रे थे वो ही लगते हैं बेहतर लम्हे"।
तो ठीक है, दिनों के साथ साथ आदमी तरक्की भी करता है, शोहरत दौलत भी कमाता है लेकिन वो जो अतीत हम कहते हैं, माज़ी जिसको कहते हैं न, वो हमेशा ही हौन्ट करता है और पंडित जनार्दन से जब मैं सीखता था, तब मेरे एक और कन्टेम्पोररी दोस्त थे, हमारी एक फ़मिली थी अलीगढ़ में, हेमा जी मेरे साथ सीखा करती थीं, अब तो अमरीका में रह रही हैं, तो साथ में अभ्यास किया करते थे, फिर मेरी सिस्टर लक्ष्मी, मुन्नी जिसको हम बुलाते थे, उनका भी निधन हो गया है, और वो भी हमारे साथ साथ सुर अभ्यास करती थी।"
फ़िल्हाल आज के गीत पर आया जाए, आज सुनिए १९७६ की फ़िल्म 'फ़कीरा' का शीर्षक गीत "सुन के तेरी पुकार, संग चलने को तेरे कोई हो न हो तैयार, हिम्मत न हार, चल चला चल अकेला चल चला चल, फ़कीरा चल चला चल"।
इस गीत के दो संस्करण हैं, एक महेन्द्र कपूर का गाया हुआ और एक हेमलता की आवाज़ में। आज सुनिए महेन्द्र कपूर की आवाज़। दोस्तों, यह एक बड़ा ही प्रेरणादायक गीत रहा है, और जैसा कि आप जानते हैं कि रवीन्द्र जैन जी की भी आँखों की रोशनी नहीं थी और उन्होंने भी हिम्मत नहीं हारी और जो राह उन्होंने चुनी थी, उसी राह पे राही की तरह चलते चले गए और आज भी चल रहे हैं। जानते हैं इस बारे में और ख़ास कर इस गीत के बारे में रवीन्द्र जैन का क्या कहना है? "मैं जानता हूँ कि दुनिया में हर आदमी किसी न किसी पहलु से विकलांग है, चाहे वो शरीर से हो, मानसिक रूप से हो, है न, या कोई अभाव जीवन में हो, है न! विकलांगता का मतलब यह नहीं कि टांग या हाथ की प्रॉबलेम है, कहीं न कहीं लोग मोहताज हैं, अपाहिज हैं, और उसी पर विजय प्राप्त करना होता है, उसी को ओवरकम करना होता है, वो एक चैलेंज हो जाता है आपके सामने, है न! तो उससे कभी निराश होने की ज़रूरत नहीं है, आज तो मेडिकल भी बहुत उन्नत हो गया है, और मैं समझता हूँ कि अब इस तरह की कोई बात रही नहीं है जैसा कि मैंने कहा कि 'डिज़अबिलिटी कैन बी योर अबिलिटी ऑल्सो', उससे आपकी क्षमता दुगुनी हो जाती है।
"चल चला चल" गीत में भी यही बात है। टैगोर का एक गीत है "जोदी तोर डाक शुने केउ ना आशे, तॉबे ऐक्ला चॉलो रे" (अगर तुम्हारी पुकार सुन कर कोई न आए तो तुम अकेले ही चल पड़ो)। इसी से इन्स्पायर्ड होकर मैंने 'फ़कीरा' का वह गीत लिखा था। इसमें मुझे वह अंतरा पसंद है अपना लिखा हुआ कि "सूरज चंदा तारे जुगनु सबकी अपनी हस्ती है, जिसमें जितना नीर वो उतनी देर बरसती है, तेरी शक्ति अपार, तू तो लाया है गंगा धरती पे उतार, हिम्मत न हार, चल चलाचल"।"
तो दोस्तों, आइए अब इस गीत का आनन्द लिया जाए महेन्द्र कपूर की आवाज़ में, गीत-संगीत एक बार फिर रवीन्द्र जैन का।
"भाईसाहब साहित्य कर रहे थे उन दिनों, उन्होंने डी.लिट किया, जैन ऑथर्स ऑफ़ फ़्रेन्च पे काम कर रहे थे, तो किताबें रहती थी उनके रूम में ढेर सारी, तो मैं वहीं बैठा रहता था उनके पास, उनको कहता था कि थोड़ा ज़ोर-ज़ोर से पढ़ें ताकि मैं अपने अन्दर समेट सकूँ उन रचनाओं को, उस साहित्य को सहेज के रख सकूँ। आप जो भी आज सुनते हैं वो सारा वहीं से अनुप्रेरीत है। और अलीगढ़ में मेरे ज़्यादातर दोस्त मुस्लिम रहे, मेरे घर के पास ही मोहल्ला है, उपर कोर्ट, दिन वहीं गुज़रता था, मेरे बचपन की एक बान्धवी मेरे लिए ग़ज़लें इकट्ठा करती थीं, गुल्दस्ता, एक मैगज़िन आती थी 'शमा', उर्दू साहित्य की बहुत पॉपुलर मैगज़िन थी, उसमें से ग़ज़लें छाँट-छाँट के सुनाया करती थी मुझे। ख़ूबसूरत दिन थे
मैंने एक शेर कहा कि
"आज कितने भी हसीन रंग में गुज़रे लेकिन कल जो गुज़रे थे वो ही लगते हैं बेहतर लम्हे"।
तो ठीक है, दिनों के साथ साथ आदमी तरक्की भी करता है, शोहरत दौलत भी कमाता है लेकिन वो जो अतीत हम कहते हैं, माज़ी जिसको कहते हैं न, वो हमेशा ही हौन्ट करता है और पंडित जनार्दन से जब मैं सीखता था, तब मेरे एक और कन्टेम्पोररी दोस्त थे, हमारी एक फ़मिली थी अलीगढ़ में, हेमा जी मेरे साथ सीखा करती थीं, अब तो अमरीका में रह रही हैं, तो साथ में अभ्यास किया करते थे, फिर मेरी सिस्टर लक्ष्मी, मुन्नी जिसको हम बुलाते थे, उनका भी निधन हो गया है, और वो भी हमारे साथ साथ सुर अभ्यास करती थी।"
फ़िल्हाल आज के गीत पर आया जाए, आज सुनिए १९७६ की फ़िल्म 'फ़कीरा' का शीर्षक गीत "सुन के तेरी पुकार, संग चलने को तेरे कोई हो न हो तैयार, हिम्मत न हार, चल चला चल अकेला चल चला चल, फ़कीरा चल चला चल"।
इस गीत के दो संस्करण हैं, एक महेन्द्र कपूर का गाया हुआ और एक हेमलता की आवाज़ में। आज सुनिए महेन्द्र कपूर की आवाज़। दोस्तों, यह एक बड़ा ही प्रेरणादायक गीत रहा है, और जैसा कि आप जानते हैं कि रवीन्द्र जैन जी की भी आँखों की रोशनी नहीं थी और उन्होंने भी हिम्मत नहीं हारी और जो राह उन्होंने चुनी थी, उसी राह पे राही की तरह चलते चले गए और आज भी चल रहे हैं। जानते हैं इस बारे में और ख़ास कर इस गीत के बारे में रवीन्द्र जैन का क्या कहना है? "मैं जानता हूँ कि दुनिया में हर आदमी किसी न किसी पहलु से विकलांग है, चाहे वो शरीर से हो, मानसिक रूप से हो, है न, या कोई अभाव जीवन में हो, है न! विकलांगता का मतलब यह नहीं कि टांग या हाथ की प्रॉबलेम है, कहीं न कहीं लोग मोहताज हैं, अपाहिज हैं, और उसी पर विजय प्राप्त करना होता है, उसी को ओवरकम करना होता है, वो एक चैलेंज हो जाता है आपके सामने, है न! तो उससे कभी निराश होने की ज़रूरत नहीं है, आज तो मेडिकल भी बहुत उन्नत हो गया है, और मैं समझता हूँ कि अब इस तरह की कोई बात रही नहीं है जैसा कि मैंने कहा कि 'डिज़अबिलिटी कैन बी योर अबिलिटी ऑल्सो', उससे आपकी क्षमता दुगुनी हो जाती है।
"चल चला चल" गीत में भी यही बात है। टैगोर का एक गीत है "जोदी तोर डाक शुने केउ ना आशे, तॉबे ऐक्ला चॉलो रे" (अगर तुम्हारी पुकार सुन कर कोई न आए तो तुम अकेले ही चल पड़ो)। इसी से इन्स्पायर्ड होकर मैंने 'फ़कीरा' का वह गीत लिखा था। इसमें मुझे वह अंतरा पसंद है अपना लिखा हुआ कि "सूरज चंदा तारे जुगनु सबकी अपनी हस्ती है, जिसमें जितना नीर वो उतनी देर बरसती है, तेरी शक्ति अपार, तू तो लाया है गंगा धरती पे उतार, हिम्मत न हार, चल चलाचल"।"
तो दोस्तों, आइए अब इस गीत का आनन्द लिया जाए महेन्द्र कपूर की आवाज़ में, गीत-संगीत एक बार फिर रवीन्द्र जैन का।
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